Friday, June 3, 2016

मुझे बेहद दुःख है की मुस्लिम परस्नल लॉ बोर्ड पर मेरी राय सही निकली!
अपने कई लेखों और टीवी बहसों में मैं ये बकती रही हूँ की आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड मुस्लमान मर्दों की खाप-पंचायत है. हरयाणा की महिलाओं पर ज़ुल्म ढाने के लिए जब समाज में खाप-पंचायतों की थू-थू हुई तो खापियों ने उनकी मानसिक ग़ुलामी कर रही महिलाओं को ही मैदान में उतार दिया ख़ुद को डिफेंड करने के लिए. खाप-समर्थक महिलाऐं मीडिया के सामने आ कर बोलीं की "खाप-पंचायतों के महिला-विरोधी फरमान दरअसल महिलाओं के फ़ायदे के लिए ही तो हैं, नारीवादी लोग हमारी लड़कियों को बिगाड़ना चाहते है."
बिलकुल यही खापिया रणनीति अपनाते हुए अब मुस्लिम-खापियों ने अपनी ग़ुलाम औरतों का विंग तैयार किया है जो मुस्लमान औरतों को ट्रिपल-तलाक, बहुपत्नी, हलाला जैसे अपराधों को ख़ुशी-ख़ुशी सहने को 'सही-इस्लाम' बताएंगी. और हम जैसे लोगों को धर्म-भ्रष्ठ। 
लेकिन मानसिक-ग़ुलामी को क़ुबूल कर चुकी इन कठपुतलियों से हमारा कोई झगड़ा नहीं. 
स्टॉकहोम सिंड्रोम का इलाज मुक्ति ही है, और कुछ नहीं !
--शीबा असलम फ़हमी 

Sunday, February 28, 2016

यह नाटकबाज़ चाइल्ड-ख़ोर माँ का नहीं तुम्हारा देश है! #Kanhaiya_Umar_JNU 

कन्हैया सुनो ,
अब जब तुम्हारे ऊपर हुए कायराना हमले की सच्चाई दुनिया के सामने है, उस समय शिक्षा मंत्री स्मृति ईरानी जो की इस देश के छात्रों की स्वघोषित माँ है, ने एक बार भी सवाल नहीं पूछा की 'मेरे चाइल्ड को कोर्ट में क्यों मारा गया'? इतना वक़्त बीत गया तुम्हारे ऊपर हुए अत्याचार की कहानी सामने आये हुए लेकिन उसकी ममता जग के नहीं दे रही. छात्रों की ये स्वघोषित माँ उस घड़ी का इंतज़ार करती है जब एक चाइल्ड 'बॉडी' में बदल कर कफ़न पहन लेता है, कफ़न पहनने से पहले तक ये छात्रों की स्वघोषित माँ उन्हें देशद्रोही साबित कर उनसे जीने के हक़ छीन लेने की समर्थक बनी रहती है. लेकिन अब जब तुम्हारे बयान की वो वीडियो, जिसमे तुमने पेशी के दौरान अपने ऊपर हुए कायराना हमले का तफ़्सीली ब्यौरा दिया है दुनिया के सामने है, इस लम्हे हम इस अनैतिक सामाजिक व्यवस्था के छोटेपन और तुम्हारे जैसे सादे मगर संभावनाओं से भरपूर भारतीय नौजवान की भव्यता से रूबरू हो रहे हैं. कन्हैया आज से तुम भारत के ही नहीं तीसरी दुनिया के उस विकराल समूह की नुमाइंदगी कर रहे हो, जो बिलकुल निहत्था होते हुए भी इस मक्कार पूंजीवादी व्यवस्था का दुःस्वप्न है, क्यूंकि तुम्हारा विवेक और हौसला जगा हुआ है.  
कन्हैया पूँजी के निर्लज्ज ग़ुलामों ने जो वार तुम पर किये हैं वो इंसानियत के जिस्म पर तब तक ज़िंदा रहेंगे, जब तक ये निर्लज्ज व्यवस्था नेस्तनाबूत नहीं हो जाती. 
रोहित वेमुळे, कन्हैया कुमार, उमर ख़ालिद- व्यवस्था याद रखे की अवाम इन नामों को फ़रामोश नहीं करेंगे. ये मक्कार और लालची लोग क़ानून और न्याय के नाम पर जो कर रहे हैं तुम्हारे साथ, वह अवाम के दिलोदिमाग़ पर पत्थर की लकीर है. ये तुम्हारा हश्र कर के सबको डराना चाहते हैं, लेकिन अपनी मीडिया, पुलिस, वकील, अदालत और अकूत पूँजी के बावजूद हर दिन तुम्हारे पैरोकार बढ़ते ही जा रहे हैं. इस देश का हर कैंपस अब तुम्हारे लिए तड़प उठा है. 
 
घबराना नहीं भाई तुम्हारा-हमारा क़ाफ़िला बढ़ रहा है. ये सैलाब बनेगा, और तब पुलिस, सेना में मौजूद तुम्हारे भाई समाज के प्रति अपने धर्म का निर्वाह करेंगे. क्यूंकि वो भी देख रहे हैं की निहत्थे, कुपोषित, गहरी चमड़ी और समझ वाले, लाचार से दिखनेवाले नौजवान, जिनकी पीठ पर ताक़त, पूँजी, और तथाकथित क़ानून का हाथ नहीं है, वो तुम्हारे लिए आवाज़ बुलंद कर रहे हैं, पिट रहे हैं, मगर मान नहीं रहे हैं. वो ही नहीं तुम्हारे और उनके ग़रीब, निरीह सत्ताहीन घरवाले भी अपने बच्चों की आवाज़ के साथ आवाज़ उठा रहे हैं. तुम्हारे अध्यापकगण भी उनके साथ खड़े हैं, जो अपनी नौकरियों को दांव पर लगा रहे हैं,  जिन्हे खूब पता है की इसके बाद व्यवस्था उन्हें कैसे विभागीय अनुशासन की फांसी पर चढ़ाएगी, लेकिन वो चुप नहीं है. सत्ता में पेवस्त अधिकारी, एडमिरल, वैज्ञानिक, विभागाध्यक्ष- किसी ने पीठ नहीं दिखाई है. 
जब से सत्ता ने तुम पर वार किया है तब से तुम्हारा क़ाफ़िला बढ़ा ही है, इसलिए घबराना नहीं कन्हैया, उमर, अनिर्बान, आशुतोष- देश तुम्हारे साथ है, एक झूठी-मक्कार नाटकबाज़ 'चाइल्ड-ख़ोर' माँ ना भी हो तो क्या? तुम्हे दिलोजान से अपना बेटा माननेवाले बढ़ रहे हैं, तुम्हारा ज़िंदा जावेद ख़ानदान बहोत बड़ा है. 

--शीबा असलम फ़हमी 

Thursday, February 18, 2016

अपने सम्भावनापूर्ण छात्रों की रक्षा कीजिये देशवासियों!
--शीबा असलम फ़हमी 

एबीवीपी के गुंडों ने कुछ साल पहले प्रोफेसर एच.एस. सभरवाल का दिन दहाड़े, पीट-पीट के क़त्ल कर दिया था, कैंपस ही में. तीन साल बाद (2009 में) मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार ने सभी छः के छः हत्यारों को क़ानूनी दांवपेंच के ज़रिये बाइज़्ज़त बरी करवा दिया. हालाँकि प्रो सभरवाल के क़त्ल की प्रक्रिया को पूरे देश ने टीवी पर देखा था लेकिन सभी गवाह पलट गए, पुलिस ने क़ातिलों को सजा दिलवाने के बजाय उन्हें बचाने वाली जांच की और नतीजा ये की सभरवाल परिवार ने अपने पिता के साथ-साथ न्याय की हत्या का अतिरिक्त शोक मनाया तीन साल बाद दोबारा. हालाँकि जज ने इन्साफ की हत्या होते देख कुंठित हो अपने फैसले में ये लिख दिया है की 'ये आरोपी दोषी तो हैं, लेकिन गवाहों के पलट जाने और अभियोग पक्ष के निकम्मेपन के कारण छूट रहे हैं'.
 
प्रो सभरवाल को मारने के बाद, 2015 में एबीवीपी के 'विद्यार्थियों' ने कैंपस में क़त्ल करने के सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए हैदराबाद यूनिवर्सिटी में दलित स्कॉलर रोहित वेमुळे को झूठे क्रिमिनल केस में फंसा कर यूनिवर्सिटी से निकलवा दिया, उस पर अफज़ल गुरु-याक़ूब मेमन के समर्थन का आरोप लगाया- उन मरे हुए दो लोगों के 'समर्थन' को 'देशद्रोह' के तौर पर व्याख्यित किया (हालाँकि अब उन दोनों का कोई कितना भी समर्थन करे वो दोनों तो फांसी पर झूल चुके है) रोहित की स्कालरशिप बंद करवाई जिसके भरोसे वो ग़रीब माँ का बेटा चाँद-सितारे छूने निकला था और अंततः उसका रौशन करियर बर्बाद कर दिया. संभावनाओं से भरपूर उस दलित नौजवान को एबीवीपी के अध्यक्ष सुशील कुमार ने नितांत झूठे केस में फंसा कर फ़ुटपाथ पर पहुंचा दिया, जिससे जूझते हुए वो ख़ुदकुशी के लिए मजबूर हो गया. जाते-जाते रोहित को इसके लिए भी माफ़ी मांगनी पड़ी की वो आत्महत्या करने के लिए एक दोस्त का कमरा इस्तेमाल कर रहा है, क्यूंकि रोहित तो महीनो से फूटपाथ पर जिंदिगी गुज़ार रहा था, उसके पास अपने कमरे में आत्मसम्मान के साथ आत्महत्या करने की सुविधा नहीं थी. कहाँ तो वो साइंस का मेघावी छात्र था और कहाँ वो बर्बाद हो कर क़र्ज़ में डूबा हुआ पराजित! इस हत्या में एबीवीपी को वाइस चांसलर, यूनिवर्सिटी प्रशासन, राज्य मंत्री दत्तात्रेय से लेकर केंद्र सरकार में शिक्षा मंत्री स्मृति ईरानी तक का भरपूर समर्थन मिला (डिटेल्स तो आप सब जानते ही हैं)।

अब उनके निशाने पर जेएनयू के 20-25 छात्र हैं. छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार और उनके साथियों के लिए ये गिरोह मॉब-लिंचिंग का माहौल तैयार कर रहा है. क़ानून अपना काम करे तो किसी को भी ऐतराज़ नहीं लेकिन तीन दिन से पटियाला कोर्ट में चल रही अराजकता से ज़ाहिर है की इरादा कुछ और है. इस काम में इन्होने संघ-परिवार के कई और तबकों को भी शामिल कर लिया है. कॉर्पोरेट मीडिया क्यूंकि उन्ही मालिकों का है, जिसकी लूट पर जेएनयू में सबसे कड़ा विरोध है, इसलिए ये मीडिया हाउस इस बार तो एबीवीपी के सहज पार्टनर हैं ही. वरना इसी बार 20-25 छात्रों के मामूली से एक कार्यक्रम को कवर करने कॉर्पोरेट मीडिया जेएनयू में कैसे उपस्थित था, जोकि प्रेसिडेंशियल डिबेट तक में नहीं आता? 
पता नहीं हमसब मिलकर भी इन नौजवानो को बचा पाएंगे या नहीं, लेकिन हम स्क्रिप्ट तो ठीक-ठीक पढ़ पा रहे हैं इस बार. 

देश को इस गिरोह से होशियार रहना चाहिए क्यूंकि ये पहले साज़िश रचते हैं, फिर अपने मीडिया की मदद से घेरते हैं, और क़ानून हाथ में लेकर काम अंजाम देते हैं. इस बीच इनका मीडिया इनके पक्ष में माहौल गरमाए रखता है ताकि इनका अपराध स्वाभाविक प्रतिक्रिया लगे. एबीवीपी अपराध में सीनाजोरी के मामले में अब विश्व हिन्दू परिषद को टक्कर दे रही है. ये लोग अपनी अपराध-कला में पारंगत हो चले हैं, ये देखभाल के वहीँ शिकार करते हैं जहाँ इन्हें अपनी भाजपा सरकार के साथ का भरोसा प्राप्त हो. 
देश को अपने सम्भावनापूर्ण छात्रों को इनसे बचाने का रास्ता जल्द ढूंढना होगा.

-- शीबा असलम फ़हमी 
शोधार्थी,
जे एन यू 

चैनल-हेड की सेवा में एक कविता--शीबा असलम फ़हमी 


मुद्दे के एक ऊपर मुद्दा, 
मुद्दे के एक नीचे मुद्दा,

कौन सा होगा राष्ट्रीय मुद्दा, 
कौनसा होगा भूलना मुद्दा,

तय करेंगे हम हर मुद्दा, 
जागीर नहीं है बहुजन मुद्दा,

एकलव्यों का वध-निपुण भारत, 
पड़ोसियों से रह गया पीछे, 

जवाब दे ब्राह्मणी पीतकारिता, 
क्यों नहीं ये बहस का मुद्दा?

खैरलांजी, मिरचपुर, वेमुला,
एकलव्य का आखेट है मुद्दा,

मेरिट-मेरिट जपने वालों, 
'सरस्वती' के कृपा-पात्रों,

पिघला सीसा डालनेवालों, 
घृष्टता-छल के महारथियों,

अभिषेक का मुद्दा, प्रवेश का मुद्दा, 
हाजीअली? शिगनापुर मुद्दा?

मूलनिवासी-भारतवासी,
अब तय करेंगे असली मुद्दा, 

नंगा करेंगे मीडिया तुझको, 
अब खेल ले तू मुद्दा-मुद्दा,

मीडिया के मठों के बाहर,
ज़िंदा रहेगा रोहित-वध,

न भटके बहुजन मुद्दा,
होगा यही सिरमौर मुद्दा।
--शीबा असलम फ़हमी 

Wednesday, February 10, 2016

http://hindi.catchnews.com/india/muslim-personel-law-is-not-a-divine-rule-1454820956.html

जो मुस्लिम मर्द बाहर चाहते हैं, वही महिलाएं घर के भीतर चाहती हैं
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कैच न्यूज़

मुसलिम पर्सनल लॉ

जो मुस्लिम मर्द बाहर चाहते हैं, वही महिलाएं घर के भीतर चाहती हैं

  • पढ़े-लिखे मुसलमान पुरुष अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए मौलानाओं की गैरजरूरी चीजों का समर्थन करते हैं. तीन बार तलाक या सिर से पैर तक बुर्का जैसी रूढ़ियां इसकी वजह से बनी हुई हैं.
  • पुरुष खुद बहुविवाह के समर्थक हैं लेकिन महिलाओं को पैत्रिक संपत्ति में हिस्सा देने के नाम पर पीछे हट जाते हैं.
  • मुसलिम महिलाएं पर्सनल लॉ को नियंत्रित करने की पक्षधर हैं. इसके ज्यातातर प्रावधान महिलाओं को उनके जायज हक से महरूम करते हैं.
आप इनकी जुर्रत तो देखिये! भारतीय क़ानून व्यवस्था के एक हिस्से को ये अपनी जागीर और भारत के सर्वोच्च न्यायलय के अधिकार क्षेत्र से बाहर बता रहे हैं. मुसलमान धर्मगुरुओं की एक मशहूर जमाअत है 'जमीयत उलेमा ए हिन्द', जिसने भारतीय मुस्लिम पर्सनल लॉ के हवाले से खुद को तो दखलंदाज़ी के हक़ से लैस बता दिया और उच्चतम न्यायलय को इस क़ानून की व्याख्या और उसको लागू करने की प्रक्रिया के लिए अक्षम क़रार दे दिया. जमीयत की ये हठधर्मिता हास्यास्पद भी है और चिंताजनक भी.
इंडियन मुस्लिम पर्सनल लॉ भारत में ब्रिटिश क़ानूनी व्यवस्था की वो कड़ी है जो आज़ादी के बाद भी बदस्तूर जारी रही. ब्रिटिश-राज के अंत समय में भारत के हिन्दू-मुसलमान के लिए अलग-अलग पर्सनल लॉ की व्यवस्था की गयी थी. 1937 में मुसलमानों और हिन्दुओं के आग्रह पर ही मुसलमानो के लिए क़ुरआन आधारित 'एंग्लो मुहम्मडन लॉ' और हिन्दुओं के लिए ब्रह्मणिक धर्मशास्त्र आधारित 'एंग्लो-हिन्दू लॉ' अस्तित्व में आये. इनका ढांचा अंग्रेजी क़ानून व्यवस्था पर ही आधारित था.
'जमीयत उलेमा ए हिन्द' ने पर्सनल लॉ के हवाले से खुद को तो दखलंदाज़ी के हक़ से लैस बता दिया लेकिन सुप्रीम कोर्ट को इसकी व्याख्या करने में अक्षम क़रार दे दिया
आज़ादी के बाद एंग्लो-मुहम्मडन लॉ ही मुस्लिम पर्सनल लॉ की शक्ल अख्तियार करता है जिसमें वक्त वक्त पर भारतीय संसद द्वारा नए एक्ट जोड़े गए. यानी आज़ादी से पहले भी, और बाद में भी ये क़ानून दैवीय कभी नहीं थे और इन सभी मौजूदा एक्ट को भारतीय संसद ने ही पारित किया. अब बताइये की भारतीय संसद द्वारा पारित एक्ट की व्याख्या और उसमे मौजूदा कमियों का रेखांकन भारतीय अदालतें नहीं करेंगी तो क्या फरिश्तों की कोई अदालत लगेगी इनके लिए?
भारत के मौलानाओं ने बड़ी चालाकी से अपने समाज में ये फ़िज़ा बनाई है की भारत की सरहद के अंदर लागू 'मुस्लिम पर्सनल लॉ', इस देश की क़ानूनी व्यवस्था का हिस्सा नहीं बल्कि मुसलमान समाज का अलग से कोई निज़ाम है, जिसे भारतीय अदालतें छू नहीं सकतीं, टीका-टिप्पणी नहीं कर सकतीं. इस भ्रम को पोषित करने में पढ़ा लिखा मुस्लिम और मर्द समाज का अधिकांश हिस्सा शामिल है.
यह तबका पर्सनल लॉ के मौजूदा अधूरेपन और उस से पैदा महिला-उत्पीड़न को अपना मसला ना मान कर बस मौलानाओं के लिए खुला मैदान छोड़ कर परिदृश्य से ग़ायब रहता है. उसके लिए ये दोतरफ़ा फ़ायदे का सौदा है, एक तो वो खुद को पुरातनपंथी समाज का हिस्सा नहीं बनने देता और दूसरी तरफ घर के अंदर उसका एकछत्र राज बना रहता है. हालत ये है की निकाह, त्वरित तलाक़, ख़ुला, बहुविवाह, हलाला, रखरखाव, बच्चों का संरक्षण, जायदाद में हिस्सा आदि मामलों में महिलाओं पर पूरे भारत में जो एकतरफा अत्याचार हो रहा है, उस पर मौलाना और आम मुस्लमान मर्द एक तालमेल के तहत यथास्थिति बनाए हुए हैं.
ब्रिटिश-राज के अंत समय में भारत के हिन्दू-मुसलमान के लिए अलग-अलग पर्सनल लॉ की व्यवस्था की गयी थी
मुट्ठी भर मौलानाओं को वोट बैंक की कुंजी माननेवाले राजनैतिक दल भी अपने-वोट बैंक को बचाने के एवज़ में मुसलमान महिलाओं की अनदेखी कर रहे हैं. जहां तक संविधान में इस पर्सनल लॉ की हैसियत का सवाल है तो ये बताना ज़रूरी है की पर्सनल लॉ की व्यवस्था को भारतीय संविधान का कोई संरक्षण प्राप्त नहीं है, ना ही ये संविधान का हिस्सा है. पर्सनल लॉ तो सरकारी तंत्र की व्यवस्था का हिस्सा है, जिसे केंद्र या राज्य सरकारें जब चाहें निरस्त कर सकती हैं, और इस के लिए उन्हें किसी भी क़ानूनी रुकावट का सामना नहीं करना पड़ेगा.
ऐसे आम से क़ानूनी प्रावधान को 'दैवीय आदेश' का आभामंडल सियासी दल, मौलाना, शिक्षित मर्द और उर्दू मीडिया की मिलीभगत से मिला हुआ है. मुसलमानो में जो हज़ारों बुद्धिजीवी, विशेषज्ञ, प्रोफेसर, डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, नामी कलाकार, पत्रकार, एक्टिविस्ट, अफ़सर, बिजनेसमैन, उद्योगपति आदि समृद्ध और प्रभावशाली मर्द समाज है वो धार्मिक दान-दक्षिणा, वक्फ, चन्दा आदि देकर मौलानाओं को पाल-पोस तो रहा है लेकिन उन्हें कभी इन्साफ पर आमादा नहीं करता. क्यूंकि निजी तौर पर ये यथास्तिथि उसे भी फायदा पहुंचाती है?
ये विडंबना है की इक्कीसवीं सदी में भी जो मर्द समाज अपनी बेटियों को परिवार के अंदर इन्साफ, बराबरी, हिस्सेदारी और आज़ादी से जीने का हक़ नहीं दे रहा, वो सारी दुनिया से अपने लिए यही सब मांग रहा है, ले रहा है, और इन्हीं के सहारे अपना एजेंडा चला रहा है.
भारतीय संसद द्वारा पारित एक्ट की व्याख्या और उसमे मौजूदा कमियों का रेखांकन भारतीय अदालतें नहीं करेंगी तो क्या फरिश्तों की कोई अदालत लगेगी इनके लिए?
कहीं संविधान, तो कहीं मानवाधिकार, तो कहीं इंसानियत के तक़ाज़े के नाम पर मुसलमान मर्द अपना जो दावा सियासत-समाज-अर्थव्यवस्था-ख़ुशहाली पर करते हैं, वही दावा मुसलमान महिलाऐं परिवार के अंदर कर रही हैं, बस!
अपनी हताशा को छुपाए बिना, सभ्य-समाज से मेरी ये दरख्वास्त है की आप वैसा ही सुलूक मुसलमान मौलानाओं और मर्दों के साथ कीजिये जैसा वो खुद अपनी कमज़ोर महिलाओं के साथ कर रहे हैं. बराबरी, इंसाफ, आज़ादी, आरक्षण जैसे अधिकार इन्हें तभी मिलने चाहिए जब ये भी इनमें विश्वास रखते हों और अपने अधीनस्थ को इनका पात्र समझते हों, क्यूंकि वो इन सब आदर्श मूल्यों पर विशेष पट्टा लिखा कर नहीं उतरे हैं. यह आधुनिक संविधान की देन हैं, सबको मिले तो इन्हें भी मिले, वरना क्यों?
http://tehelkahindi.com/our-husband-brother-son-boyfriend-colleague-are-parts-of-our-life-and-porn-is-a-part-of-their-life-says-sheeba-aslam-fahmi/
#Sunny_Leone_and_Indian_moralists

Is Sunny Leone gate crashing into our lives or ...?

नजरियाA- A+

हमारे पति, भाई, बेटे, बॉयफ्रेंड और सहकर्मी हमारे जीवन का हिस्सा हैं और पॉर्न उनके जीवन का, दूसरी तरफ ‘देसी बॉयज’ भी हैं, स्वीकार कीजिए

इस रीढ़विहीन मीडिया और उसके जातिवादी मर्द संपादकों की जुर्रत नहीं कि वह ‘कलर्स’ चैनल के मालिकों से पूछें कि ये ‘बिग-बॉस’ जैसा विकृत कार्यक्रम क्यों चला रहे हो तुम? इस मीडिया की जुर्रत नहीं कि बिग-बॉस के निर्माताओं से पूछें कि एक पॉर्न अभिनेत्री को घर-घर के ड्रॉइंग रूम में किसलिए पहुंचाया गया?
शीबा असलम फ़हमी 2016-02-15 , Issue 3 Volume 8
3सनी लियोन परिघटना का फायदा अगर उनसे ज्यादा किसी को हुआ है तो वो है भारतीय मीडिया. जो नैतिकता, आत्मसंयम और ‘चारित्रिक विकास’ बेचने वाली दुकानों से भी कमाता है, साथ ही इन्हीं मूल्यों की कमर तोड़ने वाली अराजक मनोरंजन की दुनिया से और भी ज्यादा कमाई करता है.
भारतीय मीडिया इतना बे-किरदार है कि ‘बिग-बॉस’ जैसे कार्यक्रम में सनी लियोन को लाकर सुपर-डुपर कमाई करता है, फिर उस कार्यक्रम की उत्तेजक झलकियों को ‘खबर’ बताकर अगले दिन खबरिया चैनल पर टीआरपी बटोरता है, फिर एसएमएस द्वारा महंगी दरों पर वोटिंग करवाकर सीधे दर्शकों को लूटता है और सनी लियोन को हर तरह के कार्यक्रम में फिट कर जब इस पूरी प्रक्रिया का दोहन सम्पूर्ण हो जाता है तो नैतिकता, पश्चाताप और व्याभिचार के सवालों से, अकेली सनी लियोन को छलनी कर अपने परम-पावन कर्तव्य की इतिश्री से भी रेटिंग बटोर लेता है. सनी लियोन के उपभोक्ता, उसकी पॉर्न फिल्मों के निर्माता-विक्रेता, ये सब कभी नहीं धिक्कारे जाते, हालांकि इनके बिना ‘सनी लियोन’ होना मुमकिन नहीं.
इस रीढ़विहीन मीडिया और उसके जातिवादी मर्द संपादकों की जुर्रत नहीं कि वह ‘कलर्स’ चैनल के मालिकों से पूछें कि ये ‘बिग-बॉस’ जैसा विकृत कार्यक्रम क्यों चला रहे हो तुम? इस मीडिया की जुर्रत नहीं कि बिग-बॉस के निर्माताओं से पूछें कि एक पॉर्न अभिनेत्री को घर-घर के ड्रॉइंग रूम में किसलिए पहुंचाया गया?
भारतीय मीडिया के लिए सनी लियोन एटीएम जैसा सुख है क्योंकि चाहे उसको सराहें या फिर दुरदुराएं, दोनों ही सूरत में टीआरपी यकीनन मिलेगी
इस मीडिया की ये भी जुर्रत नहीं कि सनी लियोन वाले बिग-बॉस सीजन-5 के विज्ञापन को ही नकार दे, लेकिन इसी मीडिया को अकेली सनी लियोन को घेरकर उसकी आलोचना करने जैसा पराक्रमी काम करना आता है. सनी लियोन की पॉर्न-फिल्म, बॉलीवुड-फिल्म, रियलिटी शो, और आइटम नंबर के भारत में करोड़ों दर्शक हैं, ये एक तथ्य है. लेकिन हमारे मीडिया बहादुरों की ये भी जुर्रत नहीं कि उन करोड़ों में से बीस-पच्चीस का ही एक सैंपल सर्वे कर ये पूछें कि  ‘भाई आप इस असांस्कृतिक मनोरंजन को देखते क्यों हो? आपके देखने के चलते ही ये बनाया जाता है, जिससे मुनाफा पैदा होता है, जिससे समाज परेशान हो रहा है?’ वैसे भारतीय फिल्म और मनोरंजन जगत में आने के बाद सनी लियोन वही कर रही हैं जो बाकी लड़कियां कर रही हैं. तो सनी लियोन में आखिर ऐसी क्या बात है कि उन्होंने इतना कौतूहल जगा दिया भारतीय समाज में? आखिरी बार ऐसी जिज्ञासा कब पैदा हुई थी मीडिया और फिल्म इंडस्ट्री में?
ये तब हुआ था जब बागी फूलन देवी हथियार डालकर वापस लौटी थीं समाज में. फूलन देवी के साथ हुए अपराधों को निर्देशक शेखर कपूर ने ‘बैंडिट क्वीन’ (1994) नामक फिल्म बनाकर उसका बाजारू दोहन किया था और फूलन देवी को महज एक बलात्कार-दर-बलात्कार पीड़िता के तौर पर पेशकर वाहवाही और दौलत कमाई थी. बलात्कारियों को बीच चौराहे सजा-ए-मौत की वकालत करने वाले भारतीय समाज में भी फूलन देवी के प्रति जो रवैया था वो उस महिला के प्रति सम्मान का नहीं था जिसने कानून की पकड़ से छूट गए अपने बलात्कारियों को सजा देकर एक मिसाल कायम की, बल्कि समाज की दिलचस्पी ये देखने में थी कि सामूहिक बलात्कार कैसा होता है और इसकी शिकार महिला कैसे रहती-सहती है? और ये भी सच है कि किसी भी महिला का अपनी यौनिकता पर अधिकार, उसका प्रदर्शन, उसके प्रति सहजता हमारे समाज को असहज कर जाती है. भारतीय फिल्म उद्योग इसकी जीती जागती मिसाल है. हालिया सालों में मल्लिका सहरावत, राखी सावंत, पूनम पांडेय और अब सनी लियोन का बिंदास रवैया उनके फिल्म करिअर की सबसे बड़ी बैसाखी इसी कारण बना.
इसलिए सनी लियोन के साथ हम भारतीयों का रिश्ता सरप्राइज-फैक्टर के साथ शुरू हुआ, बिग बॉस में सिर्फ भागीदार ही नहीं बल्कि पूरा दर्शक समाज अचंभित था कि निर्लज्ज-नग्न-यौन अनुभवों की दुनिया का एक बाशिंदा दिन-दहाड़े हमारे बीच कैसे? वो भी खुद को भारतीय मूल का घोषित करते हुए? विदेशों में बसे भारतीय मूल वालों की हर कामयाबी को ‘भारतीय संस्कार की कामयाबी’ का ठप्पा लगाने वालों के लिए ये एक भयानक भारतीयता थी. ये भारतीय मूल के सबीर ‘हॉटमेल’ भाटिया से कई गुना हॉट-फीमेल का मामला था. दुनियाभर में सॉफ्टवेयर क्रांति करने वाले भारतीय, इस भारतीय मूल की ‘साॅफ्वेयर’ के साथ डील कर पाने में नाकाम थे. कुछ चिर-सरपरस्त टाइप मर्दों की दिक्कत थी कि अपनी इस कामयाब ‘बेटी’ का क्या करें? कुछ का मसला था कि अपने पति/बॉयफ्रेंड के समक्ष कैसे प्रासंगिक बनी रहें, कुछ का मानना था कि हमारी उम्र तो गुजर गई बौराने की लेकिन बेटों को कैसे बचाएं? कुछ को व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा ने भी परेशान किया. कुल मिलाकर भारतीय मीडिया और मनोरंजन व्यवसाय को छोड़ दें तो दिक्कत सबको थी. भारतीय मीडिया के लिए सनी लियोन एटीएम जैसा सुख है क्योंकि चाहे उसको सराहें या दुरदुराएं, टीआरपी यकीनन मिलेगी, लिहाजा उत्कंठ नारीवादी कोण हो या भारतीय संस्कृतिवादी, खरबूजा छुरी पर गिरे या छुरी खरबूजे पर.
Sunny Leone by Shailendra Pandey (2)web
Photo- Tehelka Archives
दो शब्द अश्लीलता के सवाल पर भी- कि पॉर्न या अर्द्धपॉर्न (मस्तीजादे) फिल्में भी जटिल निर्माण प्रक्रिया से बनती हैं, ऐसे में फाइनेंसर, निर्माता, निर्देशक, संपादक, तकनीक विशेषज्ञ, संगीत निर्देशक, हीरो, वितरक आदि को इल्जाम के दायरे से बाहर रख सिर्फ महिला पॉर्न स्टार को अश्लीलता के सवाल पर घेरना ही अश्लीलता है. पॉर्न से मुनाफा कमाकर, उसी पॉर्न स्टार से पश्चाताप करवाने की हेकड़ी ही अश्लीलता है. मीडिया जगत में होने वाले यौन-उत्पीड़न, यौन अपराधों पर कभी स्टोरी न करना, पीड़ित महिला-सहकर्मी को लाचार, बेसहारा और बेरोजगार छोड़ आततायी संपादक-चैनल हेड की जी-हुजूरी करना ही अश्लीलता है.
विश्व में अब कुछ देशों में ‘पॉर्न वेबसाइट प्रति व्यक्ति’ के हिसाब से हैं, मतलब ये कि प्रति हजार व्यक्तियों पर लगभग हजार ही पॉर्न साइट्स हैं. इस मामले में मानवता के विकास की कहानी अद्भुत है, यानी पीने का पानी नहीं पहुंचा पाए हैं लेकिन विकसित दुनिया ने सबके लिए पॉर्न मुहैया करवा दिया है. अब ये साम्यवादी समझ कि ‘रोजगार के तौर पर स्त्री-शरीर का उपयोग उसे एक वस्तु में तब्दील कर रहा है, निर्मम बाजार और पूंजीवाद सेक्स को गैरमानवीय आयाम दे रहे हैं’, बुनियादी तो है लेकिन काफी नहीं. सेक्स-रेवेन्यू से अब देशों की अर्थव्यवस्थाएं चल रही हैं. राष्ट्रीय सरकारें सेक्स के बाजार से कमाया गया मुनाफा सामाजिक-सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य पर खर्च कर रही हैं. इसलिए सेक्स-उद्योग अब प्रतिदिन की सच्चाई है, जिसे हम आत्मसात कर ही लेंगे. देसी सनी लियोन के प्रकट होने में जितनी देर लगेगी उतनी ही देर तक आधी-विदेशी सनी लियोन का सिक्का चलता रहेगा, और वही इस यात्रा का अगला पड़ाव होगा, फिर सब सामान्य हो जाएगा.
दरअसल पॉर्न की कामयाबी का राज यह है कि ये नितांत एकांगी और गैर लज्जाजनक अनुभव है. ये उपभोक्ता को गुमनाम रख सिर्फ प्रस्तुतकर्ता पर केंद्रित रहता है और उपभोक्ता समाज अपनी नाक सिकोड़े, त्योरियां चढ़ाए नैतिकता का आग्रह भी कर लेता है. दुनिया के सबसे बड़े पॉर्न-आसक्त भारतीय समाज को अगर सनी लियोन ये चुनौती दे दे कि ‘है कोई माई का लाल-संस्कारी पुरुष जो समाज में खुलकर आए और बताए कि सनी लियोन उसकी फंतासी की मलिका है’, तो आपको क्या लगता है कि कितने मर्द ईमानदारी से आगे बढ़कर आ सकेंगे? हमारे पति, भाई, बेटे, बॉयफ्रेंड और सहकर्मी हमारे जीवन का हिस्सा हैं और पॉर्न उनके जीवन का, दूसरी तरफ ‘देसी बॉयज’ भी हैं, स्वीकार कीजिए.

Friday, February 5, 2016

वे कौन हैं जो मुस्लिम महिलाओं को लूट व अंधविश्वास के केंद्र- मजार और दरगाह में प्रवेश की लड़ाई को सशक्तिकरण का नाम दे रहे हैं?

सवाल पैदा होता है कि असल समस्याओं से जूझती मुस्लिम महिलाओं को इस नकली समस्या में क्यों घसीटा जा रहा है? वो कौन लोग हैं जिन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, तीन-तलाक, भगोड़े पति, पति की दूसरी शादी से उत्पन्न अभाव, परिवार नियोजन का अभाव, जात-पात, दहेज, दंगों में सामूहिक बलात्कार जैसी भयानक समस्याओं के निराकरण के बजाए हाजी अली दरगाह के गर्भ-गृह में दाखिले को मुस्लिम महिलाओं का राष्ट्रीय मुद्दा बनाने की सूझी है?
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Photograph: Andreas Werth/Alamy
भारत की मुस्लिम बेटियां समाज का सबसे अशिक्षित वर्ग हैं, सम्मानित रोजगार में उनकी तादाद सबसे कम है, अपने ही समाज में दहेज के कारण ठुकराई जा रही हैं, गरीबी-बेरोजगारी और असंगठित क्षेत्र की शोषणकारी व्यवस्था की मजदूरी में पिस रही हैं. मुजफ्फरनगर, अहमदाबाद और सूरत दंगों में सामूहिक बलात्कार की शिकार महिलाएं सामाजिक पुनर्वास की बाट जोह रही हैं. तीन तलाक की तलवार उनकी गर्दन पर लटकती रहती है, कश्मीर की एक लाख से ज्यादा बेटियां ‘हाफ-विडो’ यानी अर्द्ध-विधवा होकर जिंदा लाश बना दी गई हैं. जब पड़ोस में तालिबान अपनी नाफरमान बेटी-बीवी को बीच चौराहे गोली से उड़ा रहा हो, जब आईएसआईएस यौन-गुलामी की पुनर्स्थापना इस्लाम के नाम पर कर रहा हो- ऐसे में वे कौन लोग हैं जो मुस्लिम महिलाओं को पंडावादी लूट, अराजकता, गंदगी और अंधविश्वास के केंद्र- मजार और दरगाह के ‘गर्भ-गृह’ में प्रवेश की लड़ाई को सशक्तिकरण और नारीवाद का नाम देकर असली लड़ाइयों से ध्यान हटा रहे हैं? 
भारतीय मुस्लिम समाज में अकीदे यानी आस्था के नाम पर चल रहे गोरखधंधे का सबसे विद्रुप, शोषणकारी रूप हैं दरगाहें, जहां परेशानहाल, गरीब, बीमार, कर्ज में दबे हुए, डरे हुए लाचार मन्नत मांगने आते हैं और अपना पेट काटकर धन चढ़ाते हैं ताकि उनकी मुराद पूरी हो सके. तीसरी दुनिया के देशों में जहां भ्रष्ट सरकारें स्वास्थ्य, शिक्षा, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, सामाजिक सुरक्षा जैसे अपने बुनियादी फर्ज पूरा करने में आपराधिक तौर पर नाकाम रही हैं वहीं परेशान हाल अवाम भाग्यवादी, अंधविश्वासी होकर जादू-टोना-झाड़-फूंक, मन्नतवादी होकर पंडों, ओझा, जादूगर, बाबा-स्वामी, और मजारों के सज्जादानशीं-गद्दीनशीं-खादिम के चक्करों में पड़कर शोषण का शिकार होती है. ऐसे में मनौती का केंद्र ये मजारें और दरगाह के खादिम और सज्जादानशीं मुंहमांगी रकम ऐंठते हैं. अगर कोई श्रद्धालु प्रतिवाद करे तो घेरकर दबाव बनाते हैं, जबरदस्ती करते हैं, वरना बेइज्जत करके चढ़ावा वापस कर देते हैं. जियारत कराने, चादर चढ़ाने और तबर्रुख (प्रसाद) दिलाने की व्यवस्था करवाने वाले को खादिम कहते हैं, जिसका एक रेट या मानदेय होता है. अजमेर जैसी नामी-गिरामी दरगाह में खादिमों के अलग-अलग दर्जे भी हैं, यानी अगर आप उस खादिम की सेवा लेते हैं जो कैटरीना कैफ, सलमान खान जैसे ग्लैमरस सितारों की जियारत करवाते हैं तो आपको मोटी रकम देनी होगी. 
अजमेर दरगाह के आंगन में दर्जनों गद्दीनशीं अपना-अपना ‘तकिया’ सजाए बैठे हैं जिन पर नाम और पीर के सिलसिले की छोटी-छोटी तख्ती भी लगी हैं. यहां पीर लोग अपने मुरीद बनाते हैं. पीरी-मुरीदी यूं तो गुरु द्वारा सूफीवाद में दीक्षित करना होता है लेकिन असल में ये एक तरह की अंधभक्ति है जिसमे पीर अपने मुरीद का किसी भी तरह का दोहन-शोषण करता है. मुरीद जिस भी शहर या गांव का है वो वहां अपने प्रभाव-क्षेत्र में अपने पीर को स्थापित करने में लग जाता है. उनके लिए चंदा जमा करता है, उनके पधारने पर आलिशान दावतें करता है, तोहफे देता है, खर्च उठाता है.  
मुरीदों की संख्या ही पीर की शान और रुतबा तय करती है. पीर पर मुरीदों द्वारा धन-दौलत लुटाने की तमाम कहानियां किवदंती बन चुकी हैं. जिस पीर के जितने धनी मुरीद उसकी साख और लाइफस्टाइल उतनी ही शानदार. दिल्ली की निजामुद्दीन दरगाह के सज्जादानशीं ख़्वाजा हसन सानी निजामी (उनसे पारिवारिक संबंध रहे हैं) ने यूं ही फरमाया था, ‘अगर मैं बता दूं कि मेरे मुरीद कितना रुपया भेजते हैं तो आंखें चुधिया जाएंगी.’ मुरीद हाथ का बोसा लेते हैं और हर बोसे पर हथेली में नोटों की तह दबा देते हैं. कहते हैं की ख्वाजा हसन सानी निजामी के पिता अपने शुरुआती दिनों में दरगाह के बाहर सड़क पर कपड़ा बिछाकर मामूली किताबें बेचा करते थे. फिर उन्हें दरगाह के अंदर की व्यवस्था में दाखिला मिल गया, और वो सज्जादानशीं बन गए, कहा जाता है कि जब वे मरे तो 30 से ज्यादा जायदादों की रजिस्ट्री छोड़ गए और निजामुद्दीन औलिया के साथ-साथ उनके भी सालाना दो-दो उर्स होने लगे, जिनमें उनके मुरीद चढ़ावा चढ़ाते हैं. ये सिर्फ एक सज्जादानशीन की मिसाल है. हर दरगाह में दर्जनों सज्जादानशीन होते हैं. आपस में चढ़ावा बांटने के लिए उनके दिन तय होते हैं. ये ‘कमाई’ सीधे उनकी जेब में जाती है. ये इतना लाभकारी धंधा है कि इसके लिए कत्ल भी हो जाते हैं.
21वीं सदी की दूसरी दहाई में जब मर्दों को भी दरगाहों से बचाना था, ताकि वो भी इस अंधविश्वास, शोषण और अराजकता से बच सकें, तब महिलाओं को शोषण में लपेटने का एजेंडा नारीवाद कैसे हुआ? मर्दों से बराबरी के नाम पर समाज में गैरवैज्ञानिकता, अंधविश्वास और शोषण को विस्तार देना नारी-सशक्तिकरण कैसे हुआ?
मुंबई की हाजी अली दरगाह एक फिल्मी दरगाह है जिसकी ख्याति अमिताभ बच्चन की फिल्म कुली से और भी बढ़ गई थी, यहां फिल्मों की शूटिंग आम बात है. पिछले कुछ सालों से वहां के मुतवल्ली (कर्ता-धर्ता) और सज्जादनशीनों ने महिलाओं को कब्र वाले हुजरे में न आने देने का फैसला किया है. उनका तर्क है, ‘कब्र में दफ्न बुजुर्ग को मजार पर आने वाली महिलाएं निर्वस्त्र नजर आती हैं, लिहाजा महिलाएं कब्र की जगह तक नहीं जाएंगी, कमरे के बाहर से ही जाली पर मन्नत का धागा बांध सकती हैं.’ जबकि भारत के शहरों में कब्रिस्तान बस्तियों के बीच ही हैं और वहां महिलाओं की आवाजाही आम बात है. अकबर, हुमायूं, जहांगीर, सफदरजंग, लोधी, चिश्ती, और गालिब तक की मजारों/मकबरों में महिलाएं बेरोक-टोक जाती हैं. दिल्ली की निजामुद्दीन औलिया की मजार पर भी जाती हैं और उत्तर भारत में स्थित सैकड़ों दरगाहों पर भी जाती हैं. सिर्फ हाजी अली दरगाह पर इस हालिया पाबंदी को वहां के कर्ता-धर्ता अब व्यवस्था बनाए रखने का मामला भी बता रहे हैं. कुल मिलाकर एक भी ढंग का तर्क सामने नहीं आया है. 
ऐसे में सवाल पैदा होता है कि असल समस्याओं से जूझती मुस्लिम महिलाओं को इस नकली समस्या में क्यों घसीटा जा रहा है? वो कौन लोग हैं जिन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, तीन-तलाक, भगोड़े पति, पति की दूसरी शादी से उत्पन्न अभाव, परिवार नियोजन का अभाव, जात-पात, दहेज, दंगों में सामूहिक बलात्कार जैसी भयानक समस्याओं के निराकरण के बजाए हाजी अली दरगाह के गर्भ-गृह में दाखिले को मुस्लिम महिलाओं का राष्ट्रीय मुद्दा बनाने की सूझी है? इस मुहिम के कानूनी खर्च जो महिला एनजीओ उठा रहे हैं उनकी फंडिंग कहां से होती है? तीसरी दुनिया के देशों में जमीन से जुड़े जन आंदोलनों को एनजीओ द्वारा आर्थिक लाभ देकर भ्रष्ट करने के कई मामले जगजाहिर हैं. क्या अब भारतीय मुसलमान भी इनकी निगाहों में चढ़ चुका है?
कुछ मंदिरों में स्त्री-प्रवेश का संघर्ष हिंदू-महिलाएं कर रही हैं इसलिए नकल करना जरूरी हो गया चाहें ये कितना भी आत्मघाती, पोंगापंथी और वाहियात क्यों न हो? क्या मुस्लिम महिलाएं समाज में मौजूद ऐसी बुराइयों को खत्म करने की लड़ाई लड़ने के बजाय उन्हें बढ़ावा देंगी? बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के जिस संविधान से मुस्लिम महिलाएं बराबरी के हक के नाम पर ये पोंगापंथ को अपनाने का आग्रह कर रही हैं, उन्हीं आंबेडकर ने मंदिर प्रवेश के संघर्ष को बेकार बताते हुए मंदिर-पुजारी व्यवस्था से किनारा करने की बात कही थी और बेहतर शिक्षा और आर्थिक खुशहाली पर बल दिया था 
21वीं सदी की दूसरी दहाई में जब मर्दों को भी दरगाहों से बचाना था, ताकि वो भी इस अंधविश्वास, शोषण और अराजकता से बच सकें, तब महिलाओं को शोषण में लपेटने का एजेंडा नारीवाद कैसे हुआ? मर्दों से बराबरी के नाम पर समाज में गैरवैज्ञानिकता, अंधविश्वास और शोषण को विस्तार देना नारी-सशक्तिकरण कैसे हुआ? दरगाहों पर श्रद्धालु बनकर खुद का शोषण करवाने की होड़ बताती है कि एनजीओ सेक्टर में सक्रिय ये मुस्लिम महिलाएं असली और छद्म मुद्दों में फ‌र्क भी नहीं जानती हैं? क्योंकि कुछ मंदिरों में स्त्री-प्रवेश का संघर्ष हिंदू-महिलाएं कर रही हैं इसलिए नकल करना जरूरी हो गया चाहें ये कितना भी आत्मघाती, पोंगापंथी और वाहियात क्यों न हो? क्या मुस्लिम महिलाएं समाज में मौजूद ऐसी बुराइयों को खत्म करने की लड़ाई लड़ने के बजाय उन्हें बढ़ावा देंगी? बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के जिस संविधान से मुस्लिम महिलाएं बराबरी के हक के नाम पर ये पोंगापंथ को अपनाने का आग्रह कर रही हैं, उन्हीं आंबेडकर ने मंदिर प्रवेश के संघर्ष को बेकार बताते हुए मंदिर-पुजारी व्यवस्था से किनारा करने की बात कही थी और बेहतर शिक्षा और आर्थिक खुशहाली पर बल दिया था जिससे व्यक्ति समाज में सम्मानीय स्थान पाता है.


http://tehelkahindi.com/why-entry-of-women-to-a-temple-or-dargah-is-more-important-than-securing-equal-rights-for-their-betterment-asks-sheeba-aslam-fehmi/