Wednesday, June 17, 2015

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‘योग का मतलब तो कुल-जमा होता है !’

योग ही नहीं आयुर्वेद, शास्त्रीय संगीत, शास्त्रीय-नृत्य आदि हिंदू पद्धति की ऐसी देन हैं जिस पर हिंदू-मुसलमान समेत सभी भारतीय समान अधिकार मानते हैं
yoda
‘योग और इस्लाम’ को आप एक बार गूगल पर सर्च कर के तो देखिये! भारत ही नहीं दर्जनों मुस्लिम देशों में योग पर चर्चा और समर्थन दिख जाएगा. और तो और अशरफ एफ.निजामी ने 1977 में ही बाकायदा एक किताब लिखी जिसका शीर्षक है ‘नमाज : द योगा ऑफ इस्लाम’. यानी योग मुसलमानों के लिए कोई इस्लाम विरोधी क्रिया नहीं रही है, वरना नमाज की एक सकारात्मक तुलना योग से क्यों होती रही बार-बार? बल्कि योग ही नहीं आयुर्वेद, शास्त्रीय संगीत, शास्त्रीय-नृत्य आदि भी हिंदू पद्धति की ऐसी ही देन हैं जिस पर हिंदू-मुसलमान सभी भारतीय समान अधिकार मानते हैं. तो फिर आखिर ऐसा क्या हुआ की योग को लेकर समझदार, उच्च शिक्षित और धर्मनिरपेक्ष मुसलमान भी विरोध में खड़ा हो गया? दरअसल ये जिद पैदा करवाई गई. एक फ्रंट खोला गया जो ये आभास कराए कि अब भारत हिंदूवादी दस्तूर की तरफ बढ़ रहा है और गैर-हिंदू यहां लाचार होकर जिएगा.
भारतीय जनता पार्टी के 2014 के चुनाव घोषणा पत्र में ‘योग-व्यायाम और सूर्य-नमस्कार’ को अनिवार्य बनाना नहीं लिखा था. जो लिखा था वो है अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण, कश्मीर से धारा 370 का खात्मा और यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू करना. इसके अलावा वादा था कि महंगाई खत्म होगी, भ्रष्टाचार खत्म होगा, महिलाओं पर हिंसा खत्म होगी, काला धन वापस आएगा. जाहिर है, जो लिखा था और जिसका वादा था उससे तो सरकार और पार्टी दोनों मुंह मोड़ चुकी हैं, बल्कि इसके उलट कश्मीर में भाजपा गठबंधन की सरकार में लगातार वो काम किए गए जो अगर पिछली सरकार के समय हो जाते तो आसमान टूट पड़ता, लेकिन फिर भी अपने उस वोटर के लिए कुछ तो करना था जो ये मान रहे थे कि मोदी जी की सरकार बनी तो मुसलमानों को ‘ठीक’ कर देंगे. ऐसे मानस को शांत रखने के लिए सरकार ने हिंदूवादी संगठन और चेहरों को बेलगाम कर रखा है जो बयानबाजी से ये आभास देते रहे कि मुसलमानों को इस सरकार ने टाइट कर रखा है और अब मुसलमानों को भारत में रहना है तो ‘हमारी’ शर्तों पर रहना होगा.
भारतीय संविधान का मात्र क-ख जानने वाले भी जानते हैं कि वंदे मातरम की ही तरह योग को भी सबके लिए अनिवार्य करना सरकार के लिए नामुमकिन है और इसके लिए धर्म की आजादी का तर्क लाने की भी जरूरत नहीं. देश का संविधान ये आजादी देता है कि आप न चाहें तो आपसे जबरदस्ती ऐसा कोई काम नहीं करवाया जा सकता, भले ही वो आपकी सेहत के लिए कितना भी लाभदायक क्यों न हो. तमाम गैर-हिंदू, जिनमें धार्मिक अल्पसंख्यक और नास्तिक अल्पसंख्यक शामिल हैं, उन्हें इस ‘जबरदस्ती’ के कारण ही योग का विरोध करना पड़ा जबकि दुनिया के तमाम हिस्सों में स्वेच्छा से योग-दिवस मनाया जाएगा. ‘स्वेच्छा’ को ‘जबरिया’ में बदलकर योगी आदित्यनाथ और उनके हमखयाल हिंदू-संस्कृति के रखवालों ने इस तरफ ध्यान दिला दिया की योग एक ‘धार्मिक पद्धति’ है, इसमें ओम, सूर्य-नमस्कार, मंत्रोच्चारण, श्लोक आदि भी शामिल हैं और भारत का विश्वविद्यालय अनुदान आयोग योग के सिलेबस में लपेटकर धर्म पढ़ा रहा है. यानी, योग के शाब्दिक अर्थ तो हैं ‘कुल-जमा’, जिसे राजनीति ने ‘घटाने’ का औजार बना दिया.
खुद योगाचार्यों के बीच इस बात को लेकर काफी रोष है कि बाबा रामदेव ने योग का पेटेंट और ब्रांडिंग जिस प्रकार की है वो अश्लील बाजारवाद है और इस सरकारी अनिवार्यता की कोशिश को वो पतंजलि बिजनेस साम्राज्य की सेवा मानते हैं. दूसरी तरफ कानूनविद हैं जो संविधान के अनुच्छेद 25 और 28 के तहत ऐसी किसी भी अनिवार्यता को असंवैधानिक करार दे चुके हैं, तीसरी तरफ हैं वो मुसलमान प्रवक्ता जो इसे इस्लाम से जोड़कर धर्म आधारित विरोध कर रहे हैं और चौथी तरफ वो समाज है जो धर्म को नहीं मानता. सूर्य उसके लिए ब्रह्मांड का एक सितारा मात्र है और भूख से बदहाल देश में योग एक ‘ओवररेटेड’ बेवकूफी.
योगी आदित्यनाथ ने भारत में ही योग के कई मुखर विरोधी अपने उस एक बयान से पैदा कर दिए, जिसमें उन्होंने फरमाया की ‘सूर्य नमस्कार करना
जरूरी है, जिसे एतराज हो वो समंदर में डूब मरे’(और अल्पसंख्यकों को आधी रात में भी साथ देने का भरोसा दिलाने वाले प्रधानमंत्री विभाजन की इस राजनीति पर चुप हैं).
योगी आदित्यनाथ से मेरा सवाल है कि अगर मैं नमाज न पढ़ूं तो क्या कोई मौलाना मुझे समंदर में फेंक सकता है?

1 comment:

  1. बहुत सुन्दर ,उम्दा पंक्तियाँ ..

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