आप इनकी जुर्रत तो देखिये! भारतीय क़ानून व्यवस्था के एक हिस्से को ये अपनी जागीर और भारत के सर्वोच्च न्यायलय के अधिकार क्षेत्र से बाहर बता रहे हैं. मुसलमान धर्मगुरुओं की एक मशहूर जमाअत है 'जमीयत उलेमा ए हिन्द', जिसने भारतीय मुस्लिम पर्सनल लॉ के हवाले से खुद को तो दखलंदाज़ी के हक़ से लैस बता दिया और उच्चतम न्यायलय को इस क़ानून की व्याख्या और उसको लागू करने की प्रक्रिया के लिए अक्षम क़रार दे दिया. जमीयत की ये हठधर्मिता हास्यास्पद भी है और चिंताजनक भी.
इंडियन मुस्लिम पर्सनल लॉ भारत में ब्रिटिश क़ानूनी व्यवस्था की वो कड़ी है जो आज़ादी के बाद भी बदस्तूर जारी रही. ब्रिटिश-राज के अंत समय में भारत के हिन्दू-मुसलमान के लिए अलग-अलग पर्सनल लॉ की व्यवस्था की गयी थी. 1937 में मुसलमानों और हिन्दुओं के आग्रह पर ही मुसलमानो के लिए क़ुरआन आधारित 'एंग्लो मुहम्मडन लॉ' और हिन्दुओं के लिए ब्रह्मणिक धर्मशास्त्र आधारित 'एंग्लो-हिन्दू लॉ' अस्तित्व में आये. इनका ढांचा अंग्रेजी क़ानून व्यवस्था पर ही आधारित था.
आज़ादी के बाद एंग्लो-मुहम्मडन लॉ ही मुस्लिम पर्सनल लॉ की शक्ल अख्तियार करता है जिसमें वक्त वक्त पर भारतीय संसद द्वारा नए एक्ट जोड़े गए. यानी आज़ादी से पहले भी, और बाद में भी ये क़ानून दैवीय कभी नहीं थे और इन सभी मौजूदा एक्ट को भारतीय संसद ने ही पारित किया. अब बताइये की भारतीय संसद द्वारा पारित एक्ट की व्याख्या और उसमे मौजूदा कमियों का रेखांकन भारतीय अदालतें नहीं करेंगी तो क्या फरिश्तों की कोई अदालत लगेगी इनके लिए?
भारत के मौलानाओं ने बड़ी चालाकी से अपने समाज में ये फ़िज़ा बनाई है की भारत की सरहद के अंदर लागू 'मुस्लिम पर्सनल लॉ', इस देश की क़ानूनी व्यवस्था का हिस्सा नहीं बल्कि मुसलमान समाज का अलग से कोई निज़ाम है, जिसे भारतीय अदालतें छू नहीं सकतीं, टीका-टिप्पणी नहीं कर सकतीं. इस भ्रम को पोषित करने में पढ़ा लिखा मुस्लिम और मर्द समाज का अधिकांश हिस्सा शामिल है.
यह तबका पर्सनल लॉ के मौजूदा अधूरेपन और उस से पैदा महिला-उत्पीड़न को अपना मसला ना मान कर बस मौलानाओं के लिए खुला मैदान छोड़ कर परिदृश्य से ग़ायब रहता है. उसके लिए ये दोतरफ़ा फ़ायदे का सौदा है, एक तो वो खुद को पुरातनपंथी समाज का हिस्सा नहीं बनने देता और दूसरी तरफ घर के अंदर उसका एकछत्र राज बना रहता है. हालत ये है की निकाह, त्वरित तलाक़, ख़ुला, बहुविवाह, हलाला, रखरखाव, बच्चों का संरक्षण, जायदाद में हिस्सा आदि मामलों में महिलाओं पर पूरे भारत में जो एकतरफा अत्याचार हो रहा है, उस पर मौलाना और आम मुस्लमान मर्द एक तालमेल के तहत यथास्थिति बनाए हुए हैं.
मुट्ठी भर मौलानाओं को वोट बैंक की कुंजी माननेवाले राजनैतिक दल भी अपने-वोट बैंक को बचाने के एवज़ में मुसलमान महिलाओं की अनदेखी कर रहे हैं. जहां तक संविधान में इस पर्सनल लॉ की हैसियत का सवाल है तो ये बताना ज़रूरी है की पर्सनल लॉ की व्यवस्था को भारतीय संविधान का कोई संरक्षण प्राप्त नहीं है, ना ही ये संविधान का हिस्सा है. पर्सनल लॉ तो सरकारी तंत्र की व्यवस्था का हिस्सा है, जिसे केंद्र या राज्य सरकारें जब चाहें निरस्त कर सकती हैं, और इस के लिए उन्हें किसी भी क़ानूनी रुकावट का सामना नहीं करना पड़ेगा.
ऐसे आम से क़ानूनी प्रावधान को 'दैवीय आदेश' का आभामंडल सियासी दल, मौलाना, शिक्षित मर्द और उर्दू मीडिया की मिलीभगत से मिला हुआ है. मुसलमानो में जो हज़ारों बुद्धिजीवी, विशेषज्ञ, प्रोफेसर, डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, नामी कलाकार, पत्रकार, एक्टिविस्ट, अफ़सर, बिजनेसमैन, उद्योगपति आदि समृद्ध और प्रभावशाली मर्द समाज है वो धार्मिक दान-दक्षिणा, वक्फ, चन्दा आदि देकर मौलानाओं को पाल-पोस तो रहा है लेकिन उन्हें कभी इन्साफ पर आमादा नहीं करता. क्यूंकि निजी तौर पर ये यथास्तिथि उसे भी फायदा पहुंचाती है?
ये विडंबना है की इक्कीसवीं सदी में भी जो मर्द समाज अपनी बेटियों को परिवार के अंदर इन्साफ, बराबरी, हिस्सेदारी और आज़ादी से जीने का हक़ नहीं दे रहा, वो सारी दुनिया से अपने लिए यही सब मांग रहा है, ले रहा है, और इन्हीं के सहारे अपना एजेंडा चला रहा है.
कहीं संविधान, तो कहीं मानवाधिकार, तो कहीं इंसानियत के तक़ाज़े के नाम पर मुसलमान मर्द अपना जो दावा सियासत-समाज-अर्थव्यवस्था-ख़ुशहाली पर करते हैं, वही दावा मुसलमान महिलाऐं परिवार के अंदर कर रही हैं, बस!
अपनी हताशा को छुपाए बिना, सभ्य-समाज से मेरी ये दरख्वास्त है की आप वैसा ही सुलूक मुसलमान मौलानाओं और मर्दों के साथ कीजिये जैसा वो खुद अपनी कमज़ोर महिलाओं के साथ कर रहे हैं. बराबरी, इंसाफ, आज़ादी, आरक्षण जैसे अधिकार इन्हें तभी मिलने चाहिए जब ये भी इनमें विश्वास रखते हों और अपने अधीनस्थ को इनका पात्र समझते हों, क्यूंकि वो इन सब आदर्श मूल्यों पर विशेष पट्टा लिखा कर नहीं उतरे हैं. यह आधुनिक संविधान की देन हैं, सबको मिले तो इन्हें भी मिले, वरना क्यों?